हर साल जिस तरह देश में
अलग-अलग कॉलेजों द्वारा इंजीनियरिंग डिग्री पाकर इंजीनियर नौकरी की तलाश में जुट
जाते है लेकिन एक इंजीनियर को नौकरी चाहे कम सैलरी में ही सही मिल जाती है या कहे
कि उन्हे भी नौकरी मिलने में कष्ट होती है लेकिन इनसे भी बुरा हाल पत्रकारों के
साथ होता है देश के हजारों कॉलेजों से पत्रकार डिग्री हासिल कर हर साल निकल रहे है
लेकिन उनके पास नौकरी नही है। देश में पत्रकारों की भरमार हो रही है। चाहे दिल्ली
विश्वविद्यालय हो या कोई और संस्थान लेकिन पत्रकरों के जो जमीनी हकीकत है उससे सभी
वाकिफ है। मीडिया हाउसों में पत्रकारों के लिए कोई सुविधा नही है। जो एक बार कैमरे
के सामने प्रसिध्दी हासिल कर लेता है फिर उसकी चलती है। लेकिन वास्तविकता है कि जो
नये पत्रकार है उनका क्या? जिस तरह कॉलेजों द्वारा पत्रकारों को डिग्री देकर मार्किट
में छोड़ देती है वो निराशाजनक है। लाखों का फीस लेकर सिर्फ दो-चार वर्कशॉप कर
देने से कॉलेज का कर्त्तव्य खत्म नही हो जाता है। उनका भविष्य कैसे बने इस बारे
में कॉलज प्रशासन को सोचना चाहिए। मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता का
छात्र हूँ। मेरे कॉलेज का नाम राम लाल आनन्द है। हमसे हर साल 20 हजार से ज्यादा
फीस बसूली जाती है लेकिन सुविधा के नाम पर जो लोग हमसे कम पीस देते है हमसे कई
गुना ज्यादा सुविधा उनको मिलती है। उनके लिए प्लेसमेंट की व्यवस्था कॉलेज में की
जाती है। लेकिन क्या हमारे कॉलेज के प्रधानाचार्य जी ने कभी मीडिया के छात्रों के
लिए प्लेसमेंट की व्यवस्था कराई है। जबाब कोई भी राम लाल आनन्द के पत्रकारिता के
छात्र दे सकता है। मीडिया हाउस की हकीकत तो यह है यदि आप किसी को जानते है तो आपकी
नौकरी वहाँ है और यदि आपकी कोई जान- पहचान नही है तो आपके लिए नौकरी उपलब्ध नही
है। क्या इस बात का पता हमारे प्रधानाचार्य को नही है जो हमारे किसी वर्कशॉप में
आकर बड़े-बड़े बात करके चले जाते है। लेकिन जब बारी आती है छात्रों के लिए कुछ
करना तो मुँह छुपाकर चले जाते है। यदि दिल्ली विश्वविद्यालय हिन्दी पत्रकारिता के
लिए कुछ कर नही सकती तो उसे इस कोर्स को बन्द कर देना चाहिए। आप हर साल मोटी फीस
भी लें और बदले में बच्चों को कुछ नसीब भी न हो यह बरदाश के बाहर है। पत्रकारों को
इन बड़े विश्वविद्यालयों ने मजदूर खाना बनाकर रखा है। फीस लेते समय बड़ी-बड़ी बात
करते है लेकिन सुविधा के नाम पर कुछ नही इसलिए दिल्ली विश्वविद्यालय को सोचने की
आवश्यकता है।Tuesday, 20 August 2013
पत्रकारिता की वास्तविकता
हर साल जिस तरह देश में
अलग-अलग कॉलेजों द्वारा इंजीनियरिंग डिग्री पाकर इंजीनियर नौकरी की तलाश में जुट
जाते है लेकिन एक इंजीनियर को नौकरी चाहे कम सैलरी में ही सही मिल जाती है या कहे
कि उन्हे भी नौकरी मिलने में कष्ट होती है लेकिन इनसे भी बुरा हाल पत्रकारों के
साथ होता है देश के हजारों कॉलेजों से पत्रकार डिग्री हासिल कर हर साल निकल रहे है
लेकिन उनके पास नौकरी नही है। देश में पत्रकारों की भरमार हो रही है। चाहे दिल्ली
विश्वविद्यालय हो या कोई और संस्थान लेकिन पत्रकरों के जो जमीनी हकीकत है उससे सभी
वाकिफ है। मीडिया हाउसों में पत्रकारों के लिए कोई सुविधा नही है। जो एक बार कैमरे
के सामने प्रसिध्दी हासिल कर लेता है फिर उसकी चलती है। लेकिन वास्तविकता है कि जो
नये पत्रकार है उनका क्या? जिस तरह कॉलेजों द्वारा पत्रकारों को डिग्री देकर मार्किट
में छोड़ देती है वो निराशाजनक है। लाखों का फीस लेकर सिर्फ दो-चार वर्कशॉप कर
देने से कॉलेज का कर्त्तव्य खत्म नही हो जाता है। उनका भविष्य कैसे बने इस बारे
में कॉलज प्रशासन को सोचना चाहिए। मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता का
छात्र हूँ। मेरे कॉलेज का नाम राम लाल आनन्द है। हमसे हर साल 20 हजार से ज्यादा
फीस बसूली जाती है लेकिन सुविधा के नाम पर जो लोग हमसे कम पीस देते है हमसे कई
गुना ज्यादा सुविधा उनको मिलती है। उनके लिए प्लेसमेंट की व्यवस्था कॉलेज में की
जाती है। लेकिन क्या हमारे कॉलेज के प्रधानाचार्य जी ने कभी मीडिया के छात्रों के
लिए प्लेसमेंट की व्यवस्था कराई है। जबाब कोई भी राम लाल आनन्द के पत्रकारिता के
छात्र दे सकता है। मीडिया हाउस की हकीकत तो यह है यदि आप किसी को जानते है तो आपकी
नौकरी वहाँ है और यदि आपकी कोई जान- पहचान नही है तो आपके लिए नौकरी उपलब्ध नही
है। क्या इस बात का पता हमारे प्रधानाचार्य को नही है जो हमारे किसी वर्कशॉप में
आकर बड़े-बड़े बात करके चले जाते है। लेकिन जब बारी आती है छात्रों के लिए कुछ
करना तो मुँह छुपाकर चले जाते है। यदि दिल्ली विश्वविद्यालय हिन्दी पत्रकारिता के
लिए कुछ कर नही सकती तो उसे इस कोर्स को बन्द कर देना चाहिए। आप हर साल मोटी फीस
भी लें और बदले में बच्चों को कुछ नसीब भी न हो यह बरदाश के बाहर है। पत्रकारों को
इन बड़े विश्वविद्यालयों ने मजदूर खाना बनाकर रखा है। फीस लेते समय बड़ी-बड़ी बात
करते है लेकिन सुविधा के नाम पर कुछ नही इसलिए दिल्ली विश्वविद्यालय को सोचने की
आवश्यकता है।
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